मेरी मेरी गांड की चुदाई कहानी में पढ़ें कि कैसे नंगी फोटो वाली और सेक्स कहानी वाली किताबें देखने के लालच में मैंने अपने से बड़े एक लड़के से गांड मरवा ली.
दोस्तो, मेरी गांड की चुदाई कहानी में मैंने बताया है कि कैसे पहली बार मेरी गांड मरी.
न जाने किन क्षणों में मैं घुटनों से हटकर अपने लड़खड़ाते पैरों से संतुलित कदमों से इधर उधर चलने लगा था. इस पूरे प्रकरण में एक बात जो सामान्य थी वो ये कि मैं छुटपन तक नग्न अवस्था में ही अधिक रहता था.
कितना सहज व सामान्य जीवन था वह. ना कोई संकोच मुझे, ना ही मेरे परिवार या गाँव में किसी को, जहाँ चाहे वहां मूत्र त्याग दो. अगर कहीं मल त्याग देता तो घर भागता धुलवाने के लिए. सभ्य समाज को भी उस कृत्य पर कोई आपत्ति करने का अधिकार नहीं होता था.
अब कभी कभी ऐसा प्रतीत होता है कि सम्भवत: ग्रामीण लोगों के लिंग के बलिष्ठ होने का यह कारण भी हो सकता है कि वो नगर के बच्चों के विपरीत मुक्त रूप से सहज ही बढ़ते हैं. उन्हें नन्हीं सी आयु से सेनेटरी पैड की जकड़न से मुक्ति और बिना किसी संकोच के नग्न विचरण का लाभ मिलता होगा.
एक बार मैंने उत्सुकता में अपनी दादी से इस विषय में चर्चा की थी. उन्होंने समझाया था कि जब तक बालक बिछौने/जांघिया को भिगोना नहीं छोड़ता तब तक उसे नग्न अवस्था में ही अधिक रखा जाता है हालाँकि बालिकाओं के सन्दर्भ ये स्वतंत्रता थोड़ी संकुचित होकर घर तक ही सीमित रहती है परन्तु बालक पूरे ग्राम में विचरते रहते हैं!
मैं एक साधारण बालक की भांति अपने जीवन चक्र में धीमे धीमे बढ़ रहा था. किशोरावस्था में भी बचपने का प्रभुत्व हुआ करता था उस समय. आधुनिक युग की भांति युवावस्था अपने रंग अल्पायु में नहीं पोता करती थी.
जन्म से ही मैं बहुत आकर्षक या सुडौल नहीं था. मेरी त्वचा का रंग भी किसी आकर्षण का केंद्र नहीं था. यदि में नीचे दिए मापदंड से व्याखित करूँ तो समयानुसार सदैव 4-5 सूचकांक ही रहा है. मेरी छोटी डील डौल व चेहरे की कोमलता से मैं लगभग हर तरह के आयु वर्ग व समूह का अंग बन जाता था.
किशोरावस्था से युवावस्था में कदम रखते हुए मैं भी अन्य बालकों की भांति कामवासना और सम्भोग के विषय में आधी अधूरी जानकारी रखने लगा था. बाकियों की तरह मुझे भी उत्तेजक चित्रों वाली पुस्तकें देखने और मस्तराम की कामुक कहानियां पढ़ने में अत्यंत आनंद मिलता था.
उन पुस्तकों के साथ सबसे बड़ी समस्या उनकी उपलब्धि की होती थी. अधिकतर पुस्तकें नगर से लाईं जाती थीं. हमारे एक विपिन भैया थे जो नगर जाकर ऐसी पुस्तकें लेकर आते थे और उनको लाकर 50 पैसे की दर से अपने घर में ही पढ़ने के लिए दिया करते थे.
इसी भांति विपिन भैया नगर में अपनी शिक्षा की लागत का वहन किया करते थे. मेरे लिये सभी पुस्तकों का दाम देकर पढ़ना संभव नहीं था. एक दिन मैंने अपने एक मित्र के हाथ में एक बहुत ही उत्तेजक पुस्तक देखी. मेरा मन उसको पढ़ने और देखने का किया लेकिन उसका दाम मैं नहीं दे सकता था.
जिन्होंने भी वो पुस्तक पढ़ी, वो ना पढ़ने वालों के सम्मुख बढ़ाचढ़ा कर उसका व्याख्यान करते. कोई और पुस्तक होती तो संभवत: मात्र कहानी सुनकर भी मन को शांति मिल जाती लेकिन उसके चित्र देखने की ललक तो पुस्तक देखने के बाद ही शांत हो सकती थी.
जोड़तोड़ में लगा था कि कैसे यह पुस्तक प्राप्त की जाये. मुझे ज्ञात था कि मेरा परिवार मेरे देर से घर पहुंचने पर क्रोधित नहीं होगा इसलिए विपिन भैया के घर जाकर उस पुस्तक को पाने के लिए एक प्रयास किया जा सकता था.
मेरे पिता जी एक बड़े नगर में वाहन चालक का कार्य करते थे और जब भी कभी हमें वह नगर विचरण के लिए अपने वाहन में ले जाते तो सदा मुझे नगर में पटे विज्ञापन, कार्यालयों व दुकानों पर लगे प्रचार/सूचना पट्ट पढ़ने के लिए प्रोत्साहित करते थे. सम्भवत: इसी कारण मैं अंग्रेजी व हिंदी को बाकी सब हमउम्र छात्रों से अधिक अच्छे से पढ़ पाता था.
पुस्तक पाने की चाह मुझे विपिन भैया की दुकान तक खींच ले गयी. पुस्तकें देखते हुए मुझे वहां बैठे बैठे अधिक देर हो गयी और मेरे मन की लालसा मेरे चेहरे से झलकने लगी. विपिन भईया ने कहा अगर धन नहीं है तो फिर यहाँ बैठ कर क्यों समय व्यर्थ कर रहे हो? अपने घर लौट जाओ.
उस वक्त तक सब जा चुके थे. मैं भी अधमने मन से बाहर आकर बैठ गया. मेरे चेहरे की हताशा और बेचैनी देखकर विपिन भैया ने मुझे फिर से पुकारा. मैं भीतर गया तो कहने लगी कि मेरी समस्या का एक समाधान है उसके पास. किंतु बदले में मुझे उनका एक कथन मानना होगा.
विपिन भैया कहने लगे कि अगर मैंने उनका कहा मान लिया तो वो मुझे घर के लिए वह पुस्तक पढ़ने और देखने के लिए दे देंगे. इतना ही नहीं उसके साथ मेरी पसंद की 2-3 पुस्तकें और भी देंगे. उनके इस कथन पर हृदय हर्ष से खिल उठा. लगने लगा कि 3 घंटे का मेरा परिश्रम सफल हो गया.
उनके कहने पर मैंने उनके पीछे पीछे प्रस्थान किया. पीछे वाले कक्ष में भैया की विद्यालय की पुस्तकों के साथ साथ कुछ खिलाड़ियों, अभिनेत्रियों के चित्रों वाली पुस्तकें भी थीं. उन्हीं में से कुछ पुस्तकें मस्तराम की कहानियों की भी थीं.
विपिन भैया ने अंदर जाने के बाद किवाड़ बंद कर लिये और बोले कि जो पुस्तकें तुम्हें अच्छी लगें वो इनमें से छांट लो. मैंने भी अपने श्रम का उचित दाम वसूल लेने का सोचा. 3 चित्रित पुस्तकों के साथ दो और पुस्तकें ले जाने की अनुमति मांगी.
भैया बोले- पांच पुस्तकें तो बहुत ज्यादा हैं और तुम दाम भी नहीं चुका रहे हो इसलिए तुम्हें मुझे भी प्रसन्न करना होगा.
पुस्तकों को देखने और पढ़ने के लालच में मैं सहर्ष तैयार हो गया.
मैंने पूछा- बताइये भैया, मुझे क्या करना होगा?
विपिन भैया बोले- तुम्हें कुछ नहीं करना है. तुम्हें हम दोनों के बीच की इस बात को केवल राज़ ही रखना है. ये हम दोनों के मध्य का रहस्य है. अगर तुम्हें इस दौरान कुछ पीड़ा हो तो मैं तुम्हें इस समझौते से निकलने का विकल्प भी दे रहा हूं. जब तक हम दोनों के बीच ये समझौता रहेगा तब तक तुम प्रतिदिन एक पुस्तक अपने घर नि:शुल्क ले जाकर पढ़ सकोगे.
विपिन भैया के समझौते के नियम मुझे अत्यंत लुभावने लगे. बिना शुल्क दिये मुझे पुस्तकें घर ले जाने की अनुमति मिल रही थी. इस विचार ने मेरी बुद्धि और विवेक पर विराम लगा दिया था. आभार जताते हुए मैंने भैया से कह दिया कि जैसा आप ठीक समझें. मुझे कोई आपत्ति नहीं है.
भैया ने मेरी हथेलियों को अपनी हथेलियों में थाम कर कहा- नहीं, समझौता होने जा रहा है तो सहमति दोनों तरफ से होनी चाहिए. सिर्फ मेरी मर्जी होने से समझौता पूरा नहीं हो सकता है.
विपिन भैया के हाथों के स्पर्श से मेरे शरीर में एक अजब सी कम्पन हुई. मैं भैया की आंखों में आंखें डालने में स्वयं ही असमर्थ हो गया और खड़े खड़े धरातल को घूरने लगा.
मुझे मूक होता देख भैया ने अपनी बात फिर से दोहराई- क्या तुम्हें स्वीकार है?
मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था. मेरे मन में पुस्तकों को देखने और पढ़ने का जो उतावलापन तो था लेकिन जो शुल्क मैं चुकाने जा रहा था उसका अनुमान नहीं था. मन में संदेह तो था कि शायद मेरी गांड की चुदाई कहानी शुरू होने वाली है. लेकिन फिर भी सिर झुकाए हुए ही मैंने हां में गर्दन हिला कर सहमति दे दी.